प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा हैं आपदाएं: आचार्य प्रशांत

रुद्रपुर। प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक आचार्य प्रशांत ने कहा है कि मनुष्य ने प्रकृति के साथ जो छेड़छाड़ की है आज उसी के परिणाम स्वरूप आपदाएं आ रही हैं जिसे हम विकास का

प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा हैं आपदाएं: आचार्य प्रशांत

रुद्रपुर। प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक आचार्य प्रशांत ने कहा है कि मनुष्य ने प्रकृति के साथ जो छेड़छाड़ की है आज उसी के परिणाम स्वरूप आपदाएं आ रही हैं जिसे हम विकास का नाम देते हैं वास्तव में वह विनाश की पटकथा लिखी जा रही है। 

    उन्होंने कहा कि बहुत समय पहले की बात है। धरती माँ अपने गर्भ में जीवन के असंख्य रूपों को सँजोए शांति से सांस ले रही थी। उसके वनों में हरियाली गूंजती थी, नदियाँ कलकल बहती थीं, पर्वत अपनी गरिमा में अडिग थे और आकाश खुला, पावन। तभी एक नई चेतना प्रकट हुई — मानव। बुद्धि मिली, भाषा मिली, और साथ में एक अपूर्णता का बोध — “मैं कुछ नहीं हूँ जब तक मैं कुछ बड़ा नहीं कर लेता।” आचार्य प्रशांत ने कहा कि मानव ने खेती की, फिर नगर बसाए। वह वन काटने लगा, नदियों का बहाव मोड़ने लगा, और पर्वतों को भी खोदने लगा।उसने मशीनों का जाल बिछाया, सीमेंट के जंगल बनाए, और हर जगह लिखा – “प्रगति।” लेकिन वह ‘प्रगति’ भ्रम मात्र है। वे कहते हैं —

“तुम प्रकृति को जीतना नहीं चाहते, तुम उससे भाग रहे हो — अपनी ही भीतरी विकृति से।”

आंतरिक अधूरापन, लोभ और अज्ञानता ने मिलकर मनुष्य को प्रकृति का दोहन करने वाला भोगी बना दिया। वह धरती की गोद से सिर्फ लेना जानता है, लौटाना नहीं। उन्होंने कहा कि  उत्तरकाशी की आपदा हो या केदारनाथ की, बादल फटना हो या ग्लेशियर टूटना — लोग इसे "कुदरत का कहर" कह देते हैं।पर क्या यह सचमुच कुदरत का कहर है?आचार्य प्रशांत कहते हैं:

“प्रकृति कभी तुम्हारे विरुद्ध नहीं होती। वह तो तुम्हारे भीतर है, तुम्हारे स्वरूप की स्मृति है। तुम उससे छेड़छाड़ नहीं करते, तुम खुद से छेड़छाड़ करते हो।”

तबाही तब आती है जब पहाड़ों में सुरंगें खोदी जाती हैं, जब नदियों के रास्ते पर बाँध बना दिए जाते हैं, जब 500 मीटर की ऊँचाई पर मॉल, होटल, और रिसॉर्ट बन जाते हैं।

आचार्य जी बार-बार कहते हैं, “प्रकृति एक उपदेशक है। जब तुम उससे प्रेम नहीं कर सकते, तब तुम किसी भी संबंध में सच्चे नहीं हो सकते।” यहाँ ‘प्रकृति’ सिर्फ जंगल या नदियाँ नहीं हैं, बल्कि तुम्हारी स्वयं की सहजता है।जिस दिन तुमने उसे खो दिया — तुम मशीन हो गए।

आज विकास के नाम पर हम पहाड़ों को छलनी कर रहे हैं। ऑक्सीजन के लिए पेड़ नहीं, सिलिंडर खरीद रहे हैं। और जब बाढ़, भूस्खलन या तूफान आता है — तो हम “भगवान ने क्यों किया?” कह कर रोते हैं। जबकि वास्तव में हम भगवान को खोद चुके होते हैं — उसकी सबसे सुंदर रचना ‘प्रकृति’ को नष्ट कर। सरकारें नीति बनाती हैं — लेकिन आचार्य प्रशांत कहते हैं कि नीति नहीं, दृष्टि बदलनी होगी।

जब तक मनुष्य यह नहीं समझता कि वह इस धरती का ‘स्वामी’ नहीं, बल्कि ‘सेवक’ है — तब तक कुछ नहीं बदलेगा।

“जब तक तुम्हारी पहचान उपभोक्ता  की है, तुम प्रकृति से जुड़े नहीं हो सकते।
जो संतोष में जीता है, वही प्रकृति से प्रेम करता है। बाकी तो सिर्फ खाने और काटने आए हैं।”

उत्तरकाशी में जब ज़मीन फटी, लोगों ने जान गंवाई — तब आचार्य प्रशांत बोले:

“जब मनुष्य भूख से नहीं, लालच से चलता है — तब ज़मीन नहीं, ज़मीर फटता है।”

इस कथन ने दिलों को झकझोर दिया। पर अफसोस, झकझोरने से पहले वो मर चुके थे जिन्हें यह सुनना था।

हमारी शिक्षा आज भी बच्चों को प्रकृति से प्रेम करना नहीं सिखाती। वो सिर्फ “प्रोजेक्ट बनाना” सिखाती है — और वो प्रोजेक्ट होता है डैम पर, पर्यटन पर, होटल उद्योग पर...

कोई नहीं कहता — "वन में एक दिन बिताओ। चुपचाप नदी को देखो।"
क्योंकि तब तुम्हारा लोभ, तुम्हारा अहंकार तुम्हें छोड़ने लगता है। और यही आध्यात्मिकता की शुरुआत होती है।इस धरती की पीड़ा विज्ञान से नहीं, विवेक से ठीक होगी। आचार्य प्रशांत हमें यही सिखाते हैं — कि प्रकृति के विरुद्ध खड़ा मनुष्य, अपने ही विनाश के पक्ष में खड़ा होता है।अब भी समय है। हम पहाड़ों को उनकी गरिमा लौटाएं।नदियों को उनका बहाव।