भीतर की गुलामी से छूट जाना ही वास्तविक स्वतंत्रता है - Acharya Prashant
स्वतंत्रता दिवस केवल एक तिथि नहीं है, बल्कि वह दिन है जब एक भारत ने विदेशी हुकूमत की बेड़ियों को तोड़कर अपने भविष्य का नियंत्रण अपने हाथों में लिया था। यह दिन हमें उन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान की

स्वतंत्रता दिवस केवल एक तिथि नहीं है, बल्कि वह दिन है जब एक भारत ने विदेशी हुकूमत की बेड़ियों को तोड़कर अपने भविष्य का नियंत्रण अपने हाथों में लिया था। यह दिन हमें उन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान की याद दिलाता है, जिन्होंने हमें यह आज़ादी दिलाई। लेकिन क्या सिर्फ़ झंडा फहराकर, मिठाइयाँ बाँटकर और छुट्टी का आनंद लेकर हम सच्ची आज़ादी का सम्मान कर सकते हैं? यह एक गहरा सवाल है जो हमें अपने भीतर झाँकने पर मजबूर करता है।
जब जीवन को चुनौती दिए बिना स्वयं को स्वतंत्र मान लिया जाता है, तो वह स्वतंत्रता नहीं, पलायन होता है। आप कितने स्वतंत्र हो, यह पता तब चलता है जब आप अपनी बेड़ियों और बंधनों को चुनौती देते हैं। हमें सोचना चाहिए कि हम जिस आज़ादी का जश्न मना रहे हैं, क्या वह केवल बाहरी आज़ादी है? क्या हम वास्तव में भीतर से भी स्वतंत्र हैं?
यहाँ "बेड़ियाँ" केवल विदेशी हुकूमत की जंजीरों का प्रतीक नहीं हैं। ये वे मानसिक, सामाजिक, और व्यक्तिगत बंधन हैं जो हमारी स्वतंत्रता को सीमित करते हैं—भय, लोभ, अज्ञान, आलस्य, और अंधविश्वास। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों ने केवल बाहरी दुश्मन का सामना नहीं किया। वे अपने भीतर के डर, संदेह और कमज़ोरियों से भी लड़े। उन्होंने दमनकारी ताक़तों को चुनौती दी और सत्य, न्याय और आत्मसम्मान के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाया। उनकी असली ताक़त उनकी आत्मिक स्वतंत्रता थी। वे जानते थे कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं, बल्कि सोचने, जीने और अपने गहरे बोध के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता है। आज, जब हम स्वतंत्र हैं, तो सवाल है कि क्या हमने इस स्वतंत्रता को आत्मसात किया है? क्या हम भीतर से भी आज़ाद हैं?
स्वतंत्रता कोई उपहार नहीं, जिसे किसी ने आपको देकर छोड़ दिया हो। यह एक सतत ज़िम्मेदारी है, जिसे हर दिन निभाना पड़ता है। हमारी स्वतंत्रता की असली परीक्षा तब होती है, जब हम अपने भीतरी और बाहरी दोनों क्षेत्रों में अन्याय, भ्रष्टाचार, अज्ञान और गलत प्रवृत्तियों को चुनौती देते हैं। यह उतना ही कठिन है जितना ब्रिटिश साम्राज्य का सामना करना, क्योंकि यह लड़ाई हमारे अपने आस-पास और भीतर लड़ी जाती है। आज भले ही हम किसी विदेशी शासन के अधीन नहीं हैं, पर हमारी सोच अक्सर पुरानी आदतों, डर, और भीड़-मानसिकता के अधीन रहती है। हम सुविधाओं के लालच में समझौते कर लेते हैं। हम भीड़ के साथ चलने में सुरक्षित महसूस करते हैं, चाहे भीड़ सही हो या गलत। हम अपनी आवाज़ उठाने से डरते हैं, कि कहीं हमारी निंदा न हो जाए। यह सब हमारी आंतरिक गुलामी के लक्षण हैं।
जो चुनौती नहीं दे रहा है, उसे पता ही नहीं कि वह बंधन में है। अगर हम अपने जीवन में किसी भी अन्याय, गलत विचार या झूठी धारणा को चुनौती नहीं दे रहे, तो हम शायद गुलामी में ही जी रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस पर स्वतंत्रता सेनानियों को सच्ची श्रद्धांजलि देने का सबसे प्रभावी तरीका है कि स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ को समाज तक पहुँचाना। और इसके लिए किसी बड़े मंच की नहीं, बल्कि एक सच्चे उद्देश्य और साहस की ज़रूरत होती है।
आज की सबसे बड़ी लड़ाई है—
- अज्ञानता के खिलाफ: आधुनिक युग में सूचना का अंबार है, लेकिन ज्ञान की कमी है। हम सोशल मीडिया के दिखावे में उलझे रहते हैं और असली ज्ञान से दूर होते जाते हैं।
- अंधविश्वास के खिलाफ: पुरानी और बेमानी धारणाएँ आज भी हमारे समाज में गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। ये अंधविश्वास हमें तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच से दूर रखते हैं।
- उपभोक्तावाद की मानसिकता के खिलाफ: हम लगातार नई-नई चीज़ें खरीदने, उपभोग करने और दूसरों को प्रभावित करने की होड़ में लगे रहते हैं। यह मानसिकता हमें बाहरी सुख की तलाश में धकेलती है, जबकि वास्तविक आनंद भीतर की स्पष्टता से आता है।
- समाज में आध्यात्मिक गिरावट के खिलाफ: जब समाज में सच्ची आध्यात्मिकता का पतन होता है, तो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अराजकता फैल जाती है। इन मोर्चों पर लड़ने के लिए हमें वही साहस चाहिए, जो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने दिखाया था। फर्क बस इतना है कि आज हमें तलवार नहीं, बल्कि सत्य के प्रकाश को उठाना होगा। अपने जीवन का नियंत्रण खुद लेना होगा। किसी भी गलत डर, लालच, या दबाव में आकर गलत निर्णय लेने से बचना होगा। हर स्थिति में सत्य के साथ खड़ा होना होगा, बोधजनित दृष्टि को भीड़ की मानसिकता से ऊपर रखना होगा।
जब हम इस तरह जीना शुरू करते हैं, तब ही हम सच्चे अर्थ में स्वतंत्र होते हैं। स्वतंत्रता दिवस पर क्रांतिकारियों की मूर्तियों पर मालाएँ चढ़ाना आसान है, पर उनकी तरह जीना कठिन। उनको हमारी असली श्रद्धांजलि यही है कि हम भी उनकी तरह अन्याय और झूठ को चुनौती दें—भले ही वह हमारे अपने घर, समाज, या मन के भीतर क्यों न हो।
स्वतंत्रता केवल बाहरी स्थिति नहीं, बल्कि आंतरिक अवस्था है। स्वतंत्रता की असली पहचान है—आपका डर से मुक्त होना और सत्य के लिए खड़े रहना। इस स्वतंत्रता दिवस पर, आइए केवल आज़ादी का उत्सव न मनाएँ, बल्कि वास्तविक रूप से आज़ाद जीवन जीने का संकल्प लें। अपने भीतर और समाज में व्याप्त बेड़ियों को पहचानें और उन्हें तोड़ने की दिशा में कदम बढ़ाएँ। स्वतंत्रता का अर्थ केवल एक राष्ट्र का स्वतंत्र होना नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति का अपनी पूर्ण क्षमता तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र होना है। हम सबको मिलकर इस सच्ची स्वतंत्रता को प्राप्त करने का सतत प्रयास करते रहना होगा।
आचार्य प्रशांत एक वेदान्त मर्मज्ञ और दार्शनिक हैं, तथा प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की है और उन्हें विभिन्न सम्मानों से सम्मानित किया गया है, जिनमें Most Influential Vegan Award (PETA), OCND Award (IIT Delhi Alumni Association), और Most Impactful Environmentalist Award (Green Society of India) शामिल हैं।