जनप्रतिनिधियों की पेंशन: जनता की जेब से नेताओं की उम्रभर की मौज
उत्तराखंड में सरकार ने हाल ही में एक और "ऐतिहासिक" फ़ैसला लिया—पूर्व विधायकों की पेंशन ₹40,000 से बढ़ाकर ₹60,000 कर दी गई। जी हाँ, जब जनता महँगाई की मार झेल रही है, बेरोज़गार

उत्तराखंड में सरकार ने हाल ही में एक और "ऐतिहासिक" फ़ैसला लिया—पूर्व विधायकों की पेंशन ₹40,000 से बढ़ाकर ₹60,000 कर दी गई। जी हाँ, जब जनता महँगाई की मार झेल रही है, बेरोज़गार नौजवान दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और पेंशन से वंचित सरकारी कर्मचारी नई पेंशन स्कीम (NPS) में फँसकर भविष्य की चिंता में हैं, तब हमारे माननीय जनप्रतिनिधियों की जेब और मोटी कर दी गई।
कहते हैं, लोकतंत्र जनता के लिए होता है। लेकिन यहाँ लोकतंत्र पहले नेताओं के लिए है—जनता तो बस टैक्स भरने और वोट डालने के लिए है। आम आदमी 30-35 साल नौकरी करके भी यह गारंटी नहीं पा सकता कि बुढ़ापे में उसे पेंशन मिलेगी या नहीं। दूसरी ओर, हमारे विधायक साहब महज़ पाँच साल विधानसभा में रह लें, चाहे काम किया हो या नहीं, आजीवन पेंशन का अधिकार पक्का। और अगर दो-तीन बार जीत गए तो अलग-अलग कार्यकाल की पेंशन अलग से जोड़कर—मानो जनता की गाढ़ी कमाई उनकी सेवानिवृत्ति योजनाओं के लिए ही रखी हो।
उत्तराखंड विधानसभा का कानून साफ़ कहता है कि पूर्व विधायक अगर किसी और पेंशन का भी हकदार है—जैसे सांसद या मुख्यमंत्री की पेंशन—तो उसे विधायक पेंशन उसके अलावा मिलेगी। यानी नेताओं के लिए "एक व्यक्ति, अनेक पेंशन" का सुनहरा अवसर। यह वही राज्य है जहाँ कर्मचारियों की माँग पर पुरानी पेंशन बहाल करने के नाम पर सरकार सालों से कन्नी काट रही है। कर्मचारियों को समझाया जाता है कि "खज़ाना खाली है" लेकिन विधायकों के लिए खज़ाना कभी खाली नहीं होता।
कटाक्ष यह है कि पहाड़ में पलायन रोकने, शिक्षा और स्वास्थ्य सुधारने, सड़क और बिजली ठीक करने पर जितनी गंभीरता से सरकार सोचती है, उससे कहीं ज़्यादा तेज़ी और गंभीरता पेंशन बढ़ाने पर दिखाई देती है। विधायक पेंशन पर बहस का नतीजा हमेशा “सर्वसम्मति से पारित” होता है। विरोधी दल भी इसमें एक सुर में सरकार का साथ देते हैं, क्योंकि आखिरकार लाभ सबको मिलना है। यही वह दुर्लभ पल है जब राजनीति में कोई मतभेद नहीं रहता।
जनप्रतिनिधियों की पेंशन का असली चेहरा यही है—यह सेवा का पुरस्कार नहीं बल्कि सत्ता का विशेषाधिकार है। जब एक पूर्व मुख्यमंत्री लाखों की पेंशन ले, एक सांसद दिल्ली से अलग पेंशन पाए और विधायक देहरादून से पेंशन जोड़ ले, तब करदाता का खून पसीना नेताओं की बुढ़ापे की गारंटी बन जाता है।
सवाल यह नहीं कि जनप्रतिनिधियों को पेंशन मिले या न मिले। सवाल यह है कि क्या उन्हें वही मिलना चाहिए जो जनता को मिलता है, या वे हमेशा "विशेष वर्ग" बने रहेंगे? अगर कर्मचारियों और आम जनता को NPS में डाल दिया गया है तो विधायकों के लिए "एक व्यक्ति—एक पेंशन" का नियम क्यों नहीं?
उत्तराखंड के हालिया फ़ैसले ने एक बार फिर साफ़ कर दिया है कि यहाँ जनता के लिए नियम और हैं, और नेताओं के लिए नियम और। अब तय जनता को करना है कि इस विशेषाधिकार पर मौन रहे या सवाल उठाए।