नेताओं को अपनी भाषा और पत्रकारों को अपनी भूमिका पर करना होगा मनन

गदरपुर। लोकतंत्र में नेता और पत्रकार, दोनों ही जनता की सेवा के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं। लेकिन गदरपुर की हालिया घटना ने इन दोनों वर्गों की कार्यशैली और जिम्मेदारी पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

नेताओं को अपनी भाषा और पत्रकारों को अपनी भूमिका पर करना होगा मनन

गदरपुर। लोकतंत्र में नेता और पत्रकार, दोनों ही जनता की सेवा के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं। लेकिन गदरपुर की हालिया घटना ने इन दोनों वर्गों की कार्यशैली और जिम्मेदारी पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

मामला तब शुरू हुआ जब गदरपुर नगर के एक पार्क की साफ-सफाई न होने की शिकायत पर पत्रकार सतीश बत्रा कवरेज करने पहुँचे। कवरेज के दौरान ही उनका वार्ड सभासद परमजीत सिंह पम्मा से विवाद हो गया। बात इतनी बढ़ी कि सभासद ने आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया और मामला गाली-गलौज तक पहुँच गया।

नेताओं से जनता यह अपेक्षा करती है कि वे समस्याओं को सुनें, समाधान करें और अपनी भाषा व व्यवहार में संयम दिखाएँ। सभासद पम्मा जैसे जनप्रतिनिधियों का बड़बोलापन न सिर्फ उनकी छवि को खराब करता है बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को सवालों के घेरे में ला देता है। नेता अगर असहमति पर आपा खो देंगे, तो फिर जनता कैसे उन पर भरोसा करेगी?

लेकिन इस विवाद ने पत्रकारों की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए हैं। घटना के बाद पत्रकार समाज ने भी इसे व्यक्तिगत मुद्दा बना लिया और सभासद को "सबक सिखाने" का मन बना लिया। सवाल यह है कि क्या पत्रकार का धर्म यही है? पत्रकारिता का असली काम है—दोनों पक्षों की बात सुनना, सच को सामने लाना और जनता की आवाज़ को प्रशासन तक पहुँचाना। अगर पत्रकार खुद ही किसी पक्षकार की तरह व्यवहार करने लगेंगे, तो उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजमी है।

इस घटना के बाद नगर के सम्मानित लोगों और सामाजिक संगठनों की मध्यस्थता से विवाद शांत तो हो गया, लेकिन असल सवाल अब भी जिंदा है। क्या नेता अपनी भाषा पर नियंत्रण रख पाएंगे? क्या पत्रकार अपनी असली भूमिका को याद रख पाएंगे?

गदरपुर का यह विवाद केवल एक पार्क की सफाई से जुड़ा छोटा मुद्दा लग सकता है, लेकिन असल में यह लोकतंत्र की बड़ी तस्वीर को दिखाता है। नेताओं को सीख लेनी होगी कि उनकी जुबान पर ताला लगना जरूरी है, और पत्रकारों को याद रखना होगा कि वे किसी गुट के योद्धा नहीं, बल्कि समाज और सत्ता के बीच एक निष्पक्ष कड़ी हैं।

सुलह हो जाने से विवाद तो शांत हो सकता है, लेकिन जब तक दोनों वर्ग अपने आचरण और जिम्मेदारी पर गंभीर मनन नहीं करेंगे, तब तक लोकतंत्र को मजबूती नहीं मिल सकती।