नदियाँ बनाम सत्ता: कब तक चलेगा खनन का धंधा?

उधम सिंह नगर। उत्तराखंड की नदियाँ जीवनरेखा हैं। गंगा, कोसी, गौला और शारदा न केवल यहाँ की सभ्यता की पहचान हैं, बल्कि करोड़ों लोगों की आजीविका, पेयजल और कृषि का

नदियाँ बनाम सत्ता: कब तक चलेगा खनन का धंधा?

उधम सिंह नगर। उत्तराखंड की नदियाँ जीवनरेखा हैं। गंगा, कोसी, गौला और शारदा न केवल यहाँ की सभ्यता की पहचान हैं, बल्कि करोड़ों लोगों की आजीविका, पेयजल और कृषि का आधार भी हैं। लेकिन आज यही नदियाँ मौत के सौदागरों के कब्ज़े में हैं।

सरकारी आँकड़े बताते हैं कि राज्य में करीब 250 से अधिक खनन पट्टे स्वीकृत हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि आधे से अधिक खनन बिना अनुमति के हो रहा है। प्रतिदिन लगभग 3000 से ज्यादा ट्रक और डंपर रेता-बजरी लेकर गुजरते हैं। अनुमान है कि यह कारोबार रोज़ 5 से 7 करोड़ रुपये की कमाई करता है, जिसमें राजनीतिक संरक्षण और प्रशासनिक हिस्सेदारी तय मानी जाती है।

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इस मुद्दे पर अब सत्ता के भीतर से भी आवाज़ उठ रही है। गदरपुर के विधायक अरविन्द पांडेय ने सार्वजनिक रूप से कहा कि अवैध खनन सत्ता के संरक्षण में हो रहा है और पार्टी के लोग इसमें शामिल हैं। यह बयान सिर्फ खनन माफियाओं की सच्चाई उजागर नहीं करता, बल्कि सत्ता की चुप्पी को भी कटघरे में खड़ा करता है।

अवैध खनन का असर साफ दिख रहा है। विशेषज्ञों की रिपोर्ट बताती है कि पिछले 10 वर्षों में कोसी और गौला नदी का तल 8 से 12 फीट गहरा हो गया है। नदी का प्राकृतिक प्रवाह बाधित हुआ है, पुलों की नींव कमजोर हो चुकी है और बरसात के दौरान बाढ़ का खतरा कई गुना बढ़ गया है। केवल 2021 की आपदा में राज्य को करीब 2000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, जिसमें खनन और अवैज्ञानिक निर्माण की भूमिका साफ मानी गई।

यह खेल महज़ माफियाओं का नहीं है। यह राजनीति, ठेकेदारी और प्रशासन का त्रिकोणीय गठजोड़ है। पुलिस और राजस्व विभाग की चौकियों से हर दिन हज़ारों ट्रक गुजरते हैं, लेकिन कार्रवाई का नाम तक नहीं। क्या प्रशासन इतना लाचार है, या फिर सब ‘हिस्सेदारी’ की मलाई चख रहे हैं?

अब वक्त है कि सरकार केवल बयानबाज़ी से आगे बढ़कर ठोस कदम उठाए। अवैध खनन पर तत्काल रोक लगे, दोषी अधिकारियों को निलंबित किया जाए और खनन माफियाओं के खिलाफ सख्त दंड सुनिश्चित किया जाए। यदि सत्ता वाकई ईमानदार है, तो उसे यह साबित करना होगा कि वह नदियों की रखवाली कर सकती है।

जनता को भी अब चुप नहीं रहना चाहिए। चुप्पी यहाँ अपराध के बराबर है। अगर ग्रामीण, समाजसेवी और संगठन एकजुट होकर लगातार आवाज़ उठाएँ, तो सरकार पर दबाव बन सकता है।

सच्चाई यह है कि नदियाँ हमेशा चुप नहीं रहेंगी। वे अपना रास्ता खुद बनाएँगी। और जब वे रौद्र रूप में आएँगी, तो सबसे पहले बहेंगे वे आलीशान होटल, फार्महाउस और अवैध निर्माण, जिन्हें सत्ता की सरपरस्ती में नदी किनारों पर खड़ा किया गया है।

उत्तराखंड की नदियाँ सत्ता से सवाल पूछ रही हैं—“हम जीवन दें या मौत? चुनाव तुम्हारा है।”