कबीर की तरह बनो — निर्भीक, निडर, और परम सत्य के लिए समर्पित।": आचार्य प्रशांत

कबीर की तरह बनो — निर्भीक, निडर, और परम सत्य के लिए समर्पित।": आचार्य प्रशांत रुद्रपुर। प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक एवम पूर्व सिविल सेवा अधिकारी आचार्य प्रशांत ने कहा है कि, कबीर दास का जीवन आत्मबोध और क्रांतिक आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं। अपने व्याख्यान में वे कहते हैं कि कबीर एक ऐसे विरल संत थे जिन्होंने न धर्म को पूजा समझा, न ही जाति-पाँति को जीवन का आधार। उन्होंने तत्कालीन समाज की जड़ता, पाखंड और खोखले कर्मकांड पर प्रहार किया और सत्य को प्रत्यक्ष अनुभव से जाना। आचार्य प्रशांत के अनुसार, कबीर की वाणी सीधे अंतःकरण को छूती है क्योंकि उसमें किसी परंपरा का अनुकरण नहीं, बल्कि भीतर के सत्य का निर्भीक उद्घाटन है। वे कहते हैं, "कबीर ने किसी भी पवित्र ग्रंथ या पुरोहित को अंतिम सत्य का माध्यम नहीं माना, बल्कि कहा कि 'मस्जिद चढ़ि-चढ़ि मुल्ला पुकारे, क्या बहरा हुआ खुदाय?' यह केवल आलोचना नहीं, आत्मा की स्वतंत्रता की घोषणा है।" कबीर के जीवन की एक विशेषता थी उनका ‘मूल्यविहीन’ जन्म — न वे ब्राह्मण थे, न किसी बड़ी जाति से। उनका जनम ही इस बात का प्रतीक था कि आत्मा न जात देखती है, न कुल। आचार्य प्रशांत समझाते हैं कि कबीर का जीवन एक आंतरिक क्रांति का उदाहरण है, जहाँ उन्होंने किसी संस्था, धर्मग्रंथ या गुरु को अंधानुकरण नहीं किया, बल्कि सत्य की खोज अपने अनुभव और साधना से की। व्याख्यान में आचार्य यह भी कहते हैं कि कबीर की वाणी में जो तीव्रता है, वह आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक है। "जब कबीर कहते हैं 'पढ़ि-पढ़ि पंडित जग मुआ, पाठी न बन्या कोय', तो वे समस्त अकादमिकता और सूखी विद्वता को नकारते हैं।" अंत में, आचार्य प्रशांत यह स्पष्ट करते हैं कि कबीर केवल कवि या संत नहीं थे, वे चेतना के विद्रोही थे। उन्होंने सत्य को जिया, कहा नहीं। उनके लिए ‘राम’ भी कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि चेतना की परम स्थिति थी। और यही शिक्षा आज के व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है — बाहर नहीं, भीतर खोजो। "कबीर की तरह बनो — निर्भीक, निडर, और परम सत्य के लिए समर्पित।"